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स्मृतिशेष

“जब तक आप सामाजिक स्वतंत्रता नहीं हासिल कर लेते, कानून आपको जो भी स्वतंत्रता देता है वो आपके लिए बेईमानी है.” – डॉ. बी.आर.अम्बेडकर

एल. आर. बाली : एक विलक्षण व्यक्तित्व

द्वारका भारती

          अंबेडकर मिशन के पुरोधा एल. आर. बाली हमारे बीच नहीं रहे. उनका जाना मानो एक शताब्दी का झटके से गुज़र जाना है. लगभग 9 दशकों से भी ज्यादा वे हमारे बीच डॉ. अंबेडकर के एक सच्चे सपूत की भांति विचरते रहे. उनका लिखा डेरों बारे साहित्य आज एक ऐसा कारनामा बन चुका है, जिसकी चर्चा कभी धूमिल नहीं होगी. हम इस बात को नकार नहीं सकते कि जब- जब भी इस देश में डॉ. अंबेडकर जैसे व्यक्तित्व को याद किया जाएगा, उनकी परछाईं की तरह एल. आर. बाली भी याद किए जाते रहेंगे. 

          वे पंजाब की ज़रखेज़ धरती के बेटे थे. एक ऐसी धरती जो अनाज के साथ- साथ जुझारू व्यक्तित्व भी पैदा करती रही है. अन्याय के खिलाफ़ पैदा होने वाले वीर सपूतों में एल. आर. बाली का नाम इन अर्थों में अग्रणी रहेगा, क्योंकि उन्होंने डॉ. अंबेडकर जैसे क्रांतिकारी महान पुरुष से प्रेरित होकर अपना पथ तय किया था. यह वो दौर था जब डॉ. अंबेडकर इस देश के सर्वहारा वर्ग के लिए देश के कोने-कोने में अपनी आवाज़ बुलंद कर रहे थे. उन्हें देश के प्रत्येक हिस्से से ऐसे जुझारू व्यक्तित्व दरकार थे जो उनकी आवाज़ को आगे पहुंचा सकें. पंजाब से लाहौरी राम बाली खुद को प्रस्तुत करते हैं. अपनी आत्मकथा में वे लिखते हैं कि : 30 सितंबर, 1956 को ‘शैड्यूल्ड कास्टस फैडरेशन’ की कार्यकारिणी की अंतिम बैठक बाबा साहब की अध्यक्षता में होती है. मैं उस समय केन्द्र में सरकारी कर्मचारी था. मैं फैडरेशन की पंजाब शाखा के नए अध्यक्ष डॉ. भगत सिंह की जान-पहचान करवाने के लिए 26-अलीपुर रोड पर मौजूद था. हम मान सकते हैं उनका अंबेडकर मिशन से लगाव बहुत देर से था. उस बैठक में बाबा साहब कुछ देर के लिए गश खा कर कुर्सी पर बैठ गए थे. उनको देखकर एल. आर. बाली अपना जीवन ध्येय अंबेडकर मिशन की सेवा में व्यतीत करने को ही बना लेते हैं. 

          इसके बाद की उनकी जीवन यात्रा शुरू होती है. 6 दिसंबर, 1956 को बाबा साहब इस संसार को अलविदा कह जाते हैं और वे मानो अपनी नौकरी से त्याग-पत्र देकर अंबेडकर मिशन के समर में कूद पड़ते हैं. आगे का सारा जीवन एक ऐसी लोहमर्षक गाथा है जिसे पढ़ कर प्रत्येक व्यक्ति को शायद ईर्ष्या हो जाए. 

          बाबा साहब द्वारा गठित राजनीतिक दल ‘रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया’ में कूदते हुए वे सन् 1964 को पार्टी द्वारा छेड़े गए ऐतिहासिक आंदोलन में पंजाब की ओर से हिस्सा लेते हैं और उस समय के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को मिलते हैं और उस ज़मीन को जो मुसलमान पंजाब में छोड़ गए थे, उसे पंजाब के भूमिहीन अनुसूचित जाति के लोगों को बांटी जाए, की मांग करते हैं. यह ऐसा आंदोलन था जिसके तहत किया गया जेल भरो आंदोलन आज भी ऐतिहासिक तौर पर याद किया जाता है. एल. आर. बाली अपनी आत्मकथा में इसके बारे में कहते हैं कि ‘रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया’ के कार्यकर्ताओं की निष्ठा बलिदान और उनके परोपकार की यह एक उज्जवल गाथा है, जो इतिहास में याद रखी जानी चाहिए. 

          बाली जी महज एक व्यक्ति ही नहीं थे, एक ऐसी संस्था थे, जिसके पास वह हर तीर उपलब्ध था जिसने अंबेडकर मिशन को आसमान की बुलंदियों तक पहुंचाया. वे बहुत अच्छे वक्ता थे. एक निडर आंदोलनकर्ता थे. ‘भीम पत्रिका’ द्वारा उन्होंने अंबेडकरी विचारों को पंजाब ही नहीं, देश के कोने-कोने तक पहुंचाया. सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि अंबेडकर मिशन की लौ को उन्होंने उसी रूप में पहुंचाया जिस रूप में उन्हें बाबा साहब से पाया था. कभी अपने नियम कायदों से समझौता नहीं किया. 

          बाबा साहब के परिनिर्वाण के बाद उनका साहित्य उस संख्या में उपलब्ध नहीं था, जितना आज हमें उपलब्ध होता है. अंबेडकरवादी साहित्य को पढ़ने की ललक तो बहुत थी, लेकिन वह ज्यादा मात्रा में उपलब्ध नहीं था. पंजाब में इस कमी को एल. आर. बाली जी की पुस्तकें पूरा कर रही हैं. उनकी दर्जनों पुस्तकों में से कई पुस्तकें तो इतनी प्रसिद्ध रही हैं कि उनके कई-कई संस्करण छपे हैं. इन पुस्तकों में से उनकी लिखी पुस्तक : ‘डॉ. अंबेडकर : जीवन और मिशन’ बहुत लोकप्रिय हुई. इस पुस्तक ने कई लेखक और अंबेडकरवादी पैदा किए हैं. ‘हिन्दुइज़्म : धर्म या कलंक’ (तीन भागों में) ने बहुत तहलका मचाया. इन पुस्तकों से पता चलता है कि उनकी अंबेडकर मिशन पर कितनी गहरी पकड़ थी. एक बाज़ – सी दृष्टि रखने वाले एल.आर. बाली अपने वैचारिक प्रतिद्वंद्वियों के लिए मानों एक हौआ बने हुए थे. आर. एस. एस. जैसे हाथ व्यक्ति भी उनके सामने रिरियाने की मुद्रा में आ जाते थे. मंच पर उनका भाषण इतना वज़नदार होता था कि लोग सम्मोहन की मुद्रा में घंटों उनका भाषण सुनने बैठे रह सकते थे. वे एक कुशल संगठन कर्ता भी थे. रिपब्लिकन पार्टी का ठोस गठन उनकी योग्यता को दर्शाता है. कभी न थकने वाले इस योद्धा को कभी भुलाया नहीं जा सकता. समय की धारा कभी रुकती नहीं, न ही प्रकृति का चलना. प्रत्येक वस्तु पनपती है तो अपने विनाश तक भी पहुंच जाती है, इस बौद्ध सिद्धांत के मुताबिक बाली जी भले ही हमारे सामने सशरीर नहीं हैं, लेकिन उनका ढेरों लिखा साहित्य, उनके विचार, उनकी भावभंगिमाएं हमेशा हमारे बीच बनी रहेंगी. अंबेडकर मिशन का ध्वज ऊंचा रखने वाले इस मनोहर व्यक्तित्व को हम झुक कर सलाम करते हैं. उनको प्रणाम करते हैं. 

          अंत में मैं उनको भरे मन से बाबा साहब के लिखे उन शब्दों, जो बाली जी ने अपनी आत्मकथा में उद्धृत किए हैं, के साथ अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं : “मैं कवि भवभूती के शब्दों में सांत्वना पाता हूं जिन्होंने कहा था : समय अनन्त है और धरती विशाल है. एक न एक दिन ऐसा इन्सान ज़रूर जन्म लेगा जो मेरे कथनों की प्रशंसा करेगा.” बाली जी उन्हीं में से एक थे.