डॉ. सुरेन्द्र अज्ञात
श्री एल. आर. बाली, पर लिखने बैठा हूं, पर मेरी स्थिति कवि के शब्दों में यह है : ” क्या भूलूं क्या याद करूं मैं ?” जिस व्यक्ति से आधी सदी से भी ज्यादा समय का घनिष्ठ संबंध रहा हो, उससे संबंधित यादों को लिखते समय ऐसा होना स्वाभाविक ही है.
बाली साहब कुशल और ओजस्वी वक्ता थे. वस्तुतः मैं उनका 1967 में बंगा में दिया एक भाषण सुन कर ही सर्वतः प्रथम उनके प्रति आकृष्ट हुआ था. भाषण था तो राजनीतिक पर उसमें बुद्धिवाद का भी बहुत बड़ा अंश था. उस भाषण में रणजीत सिंह के राज्य में दलितों की अवस्था की बाबत की गई उनकी टिप्पणी इतनी ऐतिहासिक और हृदय स्पर्शी थी कि उसके 20-25 वर्ष बाद ‘नवां ज़माना’ के संपादकीय में जगजीत सिंह आनन्द ने उसे बाली साहब के बंगा में दिए भाषण के हवाले से उद्धृत किया था. वह संपादकीय मैंने बाली साहब को डाक द्वारा भेजा भी था, जो उनके कागज़ों- पत्रों में कहीं विद्यमान होगा.
बाली साहब के भाषण को सुनकर मुझसे पहले भी एक अन्य गैर – दलित उन पर फिदा हुआ था – वह थे नवांशहर के महाशय कृष्ण कुमार बोधी. वह आर्यसमाजी थे परन्तु 1956 में जब उन्होंने बाली साहब का भाषण सुना तो वह सदा के लिए बौद्ध एवं अंबेडकरी बन गए – नवांशहर का अंबेडकर – भवन उन्हीं के प्रयत्नों के फलस्वरूप अस्तित्व में आया था.
जब गैर-दलित तक उनके स्पष्ट, बुद्धिवादी और ओजस्वी भाषणों से इस तरह प्रभावित हो जाते थे तो दलितों पर उनके भाषणों के प्रभाव का तो कहना ही क्या है ?
1967 का बाली साहब का प्रभाव तब और ज्यादा बढ़ गया जब 1970-71 में मैंने उनकी ‘डॉ. अंबेडकर : जीवन और मिशन’ (पंजाबी में) पुस्तक पढ़ी. इसे पढ़ने के कुछ समय बाद मैं बीमार पढ़ गया – शायद टाइफायड था. बुखार के दौरान उक्त पुस्तक के दृश्य, उसमें अंकित बातें, मेरे दिमाग में घूमती रहतीं. वह जितने प्रबल वक्ता थे, उतने ही कलम के धनी भी थे.
1973-74 वह वर्ष था जब मैं उनसे पहली बार मिला और यह मिलन निरन्तर आधी सदी से भी ज्यादा समय तक चला. उनसे मेरी अंतिम बातचीत एक जुलाई के आसपास फोन पर हुई थी और जिस विषय पर चर्चा हुई थी, उस पर आगे और विचार 9 जुलाई को करना था, परन्तु 6 जुलाई को अचानक वह हम से सदा के लिए बिछुड़ गए !
1973-74 में मैं गढ़शंकर ( जिला होशियारपुर ) स्थित खालसा कॉलेज में पढ़ाता था. छात्रों के एक दल ने प्रिंसीपल से कहा कि हमें डॉ. अंबेडकर का जन्म दिन मनाना है. प्रिंसीपल ने उन्हें मेरे पास भेज दिया क्योंकि मैं सांस्कृतिक कार्यक्रमों का इन्चार्ज था. बात हुई मुख्य वक्ता को बुलाने की. बाली साहब का नाम सभी को स्वीकार था. कार्यक्रम हुआ. बाद में मुख्य अतिथि के साथ स्टाफ का चाय-पान था. इस दौरान मैंने बाली साहब से बातचीत की. उन्हें बताया कि मेरे लेख ‘सरिता’ पत्रिका में छपते हैं और पिछले दिनों ‘गायत्री मंत्र’ पर लिखा लेख चर्चा में काफी रहा है. वह बोले ‘क्या वह आपका लेख है ? मैंने काट कर फाइल में लगाया हुआ है. आप किसी दिन जालन्धर आएं बैठकर और चर्चा करेंगे. ” कुछ दिनों बाद मैं उनके दफ्तर पहुंचा, जो तब ज्योति सिनेमा के पास हुआ करता था. यह थी शुरूआत.
बाली साहब निष्ठावान् बौद्ध थे, बल्कि कहना चाहिए कि बौद्धों के नेता थे. मैंने जब अंबेडकर साहित्य पढ़ना शुरू किया, तब बुद्धइज़्म का ज़िक्र आया करता था. एक दिन बाली साहब के घर बैठक में बैठे थे कि बातचीत के दौरान मैंने कहा कि बुद्धइज़्म में ‘यह’ है, उसमें ‘वह’ है. मुझे तो यह सब तर्कहीन एवं अंधविश्वासपूर्ण लगता है, जिसे मैं स्वीकार नहीं कर सकता, तो वह बोले कि हम भी यह सब स्वीकार नहीं करते. हम तो बुद्धइज़्म का वह रूप स्वीकार करते हैं जो बाबा साहब ने अपनी पुस्तक ‘The Buddha and His Dhamma ‘ में प्रस्तुत किया है. यह कहकर उन्होंने पास ही खड़े अपने एक कर्मचारी से कहा जाओ और हज़ारा राम बोधी के घर से इस पुस्तक की एक कापी ले आओ – पुस्तक का नाम उन्होंने कागज़ पर लिख कर उसे थमा दिया. वह पुस्तक मैंने जल्दी-जल्दी पढ़ डाली और बुद्धइज़्म पर आज तक जो लिखा है, उसी के प्रकाश में लिखा है.
इसी दौरान मई 1977 में मेरी व सोमा सबलोक की शादी का अवसर पैदा हो गया. बाली साहब से बात की. बोले – ” बौद्ध रीति से शादी संभव है.” मैंने कहा कि “मैं बुद्धइज़्म को तो स्वीकार करता हूं. परन्तु भिक्षुवाद को नहीं.” वह बोले – “भिक्षुवाद को तो बाबा साहब स्वयं नापसंद करते थे. उनका कहना है कि निष्ठावान् एवं चरित्रवान् गृहस्थ व्यक्ति को विवाह आदि संपन्न कराने चाहिए, जहां तक कि वह व्यक्ति दीक्षा देने का भी अधिकारी है. बाबा साहब ने अपने 10 लाख अनुयायियों को 1956 में स्वयं ही नागपुर में दीक्षा दी थी, किसी भिक्षु ने नहीं दिलाई थी. ”
बाली साहब आगे कहने लगे – ” मैं स्वयं शादी संपन्न करूंगा. हम कुछ प्रतिज्ञाएं पति-पत्नी से करवाते हैं, जो कागज़ पर लिखी रहती हैं और उन पर पति-पत्नी एवं साक्षी के हस्ताक्षर करवाते हैं. इसमें भिक्षु की कोई भूमिका नहीं होती और न ही उसे हम बुलाते हैं. ”
यह निश्चित होने पर 29 मई को बाली साहब आए और बहुत बड़े जनसमुदाय के समक्ष हमारी शादी संपन्न कराई. जहां तक मुझे याद है, उनके दोनों बेटों की शादियां भी इसी तरह संपन्न हुई थीं, क्योंकि मैं दोनों शादियों में सपत्नीक उपस्थित था. मतलब यह कि बाली साहब जो कहते थे, वही करते थे. वे हाथी के खाने के और दिखाने के अलग-अलग दांतों में विश्वास नहीं करते थे. खेद है, अब प्राय: सर्वत्र इसके विपरीत ही हो रहा है.
नेता में मौके की नज़ाकत को समझते हुए तत्काल निर्णय लेने की क्षमता होती है. इसे प्रत्युत्पन्नमतित्व भी कहते हैं. पिछली सदी के 70 के दशक की बात है. उन दिनों बाबा साहब के जन्मदिवस के कार्यक्रम प्रायः रात को हुआ करते थे. एक ऐसा ही कार्यक्रम जालन्धर के दमोरिया पुल के पार एक जगह था. बाली साहब के साथ मैं और मेरी पत्नी सोमा सबलोक थी. रात के 11-12 बजे का समय होगा. जब हम वापस आ रहे थे तो एक आदमी बाली साहब के पास आया और उसने बताया कि फलां आदमी तलवार लिए इधर घूमता मैंने देखा है.
वह तलवार वाला अवश्य कोई बाली साहब का विरोधी था और निम्नस्तरीय व्यक्ति था. बाली साहब गले में एक सफेद कपड़ा डाले रहते थे, मुंह वगैरह साफ करने के लिए. उन्होंने एकदम वह उतारा और सड़क के किनारे पड़े पत्थर व ईंट के टुकड़े उसमें डालने लगे. हमें भी उन्होंने कहा कि कमीज़ और पैंट की जेबों में पत्थर भर लो और हाथों में भी पकड़ लो . हम ने ऐसा ही किया. यह बताने की आवश्यकता नहीं कि हम ( मैं और
मेरी पत्नी) इस अकस्मात् पैदा हुए घटनाक्रम से भयभीत थे. बाली साहब ने अपने कपड़े के एक कोने में काफी पत्थर भर कर गांठ बांध ली और उसे दूसरे कोने से पकड़ कर घुमाते हुए बोले कि यह एक जिसके मुंह पर पड़ गया उसकी तलवार पड़ी की पड़ी रह जाएगी. इससे हम में साहस का संचार हुआ और तीनों सतर्क होकर रिक्शा पर बैठ गए और आधी रात को आबादपुरा, बाली साहब के घर पहुंच गए.
यह घटना मेरी स्मृति में तभी से इस बात की सूचक के तौर पर अंकित रही है कि बाली साहब निधड़क, प्रत्युत्पन्नमति और उपाय – कुशल व्यक्ति हैं, जो संकट की घड़ी में घबराने के स्थान पर उचित उपाय करते हैं.
निधड़क शब्द से निधड़क – साहब की बात याद हो आई है. जब से मैं अंबेडकरी और बौद्ध आंदोलन से जुड़ा था, बाली साहब मेरा बहुत ध्यान रखते थे- यद्यपि उमर में मैं उनसे काफी छोटा था तथापि वह मेरा सम्मान करते थे और मेरी बात को सदा वज़न देते थे. एक बार बाली साहब के साथ मैं, निधड़क साहब और दो-एक लोग थे. हमें किसी अंबेडकरी कार्यक्रम में जाना था. बातों-बातों में निधड़क साहब ने कुछ असंसदीय शब्दों का प्रयोग कर दिया. बाली साहब थोड़ा डांटते-से-बोले – ” निधड़क साहब देख लेना चाहिए कि यहां कौन बैठा है. थोड़ा सोच-समझ कर बोलो. ” ‘कौन’ से भाव मुझ से था. निधड़क साहब भी यकदम सारी स्थिति समझ गए. वह चुप हो गए. उनका भी मेरे प्रति स्नेह था, यद्यपि बाली साहब तो उनके नेता थे ही.
बाली साहब से मेरा कैसा घनिष्ठ संबंध रहा है. यह इसी से स्पष्ट हो जाता है कि कई बार कई साथी अपनी बात बाली साहब तक पहुंचाने के लिए मेरी मदद लेते थे. कहते थे, आप कहेंगे तो वे सुन लेंगे, हमें तो सीधे फटकार देंगे. कई बार बीबी जी भी कह दिया करती थीं- ” डॉक्टर साहब इसे (बाली जी को ) समझाओ ! ”
वह मिशन के काम को पारिवारिक ज़िम्मेदारियों से भी ज्यादा महत्त्व देते थे, ऐसा कई बार मेरे सामने हुआ. मुझे एक पुरानी घटना याद आती है. आनन्द बाली अभी 7वीं या 9वीं कक्षा का छात्र था. स्कूल में शायद गिर गया था या किसी शरारती लड़के ने बूट से टांग पर प्रहार किया था कि उसकी टांग की हड्डी टूट गई थी. मैं और सोमा सबलोक बाली जी से बैठे बातें कर रहे थे – किसी कार्यक्रम में जाने की तैयारी थी. अन्दर से बीबी जी ने कहा कि ‘नन्द’ की टांग का कुछ ध्यान करो. बाली जी ने कुछ ऐसी प्रतिक्रिया की कि मुझे और मेरी पत्नी को जंची नहीं. हमने कहा कि बच्चा है, ऐसे तो मत कहो! बाली साहब बोले – ” क्या मैं जाकर उसके साथ लेट जाऊं ?” हम सब खिलखिला कर हंस पड़े. तनावपूर्ण वातावरण को खुशगवार माहौल में बदलने की उनकी अद्भुत क्षमता थी.
बाली साहब नारियल के समान थे – बाहर से सख्त पर अन्दर से करुणामय. ऐसा मैंने कई बार देखा है. पिछले साल मेरे खुद के साथ जो हुआ वह मुझे सदा याद रहेगा. मेरी पत्नी सोमा सबलोक की हालत Post – Covid जटिलता के कारण बहुत गंभीर हो गई थी – वह 15 दिन 24 घंटे ऑक्सीजन पर ICU में रही. बाली साहब को पता चला. उनका अचानक फोन आया – ” डॉ. साहब अस्पतालों में लूटते हैं. मैं 50,000 रुपये भिजवा रहा हूं, घबराना नहीं, हम है न!” फोन सुनकर मैं भावुक हो उठा और उन्हें विनती की कि पैसे न भिजवाएं अभी चल रहा है. यदि ज़रूरत पड़ी तो आपको ही बताना है. मेरे बहुत आग्रह करने पर वह माने. बाद में भी बीच-बीच में फोन करके ‘सोम’ (मेरी पत्नी को वह इसी नाम से बुलाया करते थे) की सेहत की बाबत पूछते रहते थे.
वस्तुत: बाली साहब अपने साथियों के दुःख-सुख में साथ देने को सदा तत्पर रहते थे.
शुरू में जिस पंजाबी पुस्तक ‘डॉ. अंबेडकर : जीवन और मिशन’ का ज़िक्र किया गया है, बाद में उसके कई संस्करण छपे जिनमें उसे पर्याप्त परिवर्धित कर दिया है और वह पंजाबी में डॉ. अंबेडकर के जीवन पर एक मानक कृति है.
बाली साहब ने हिन्दी में भी ‘डॉ. अंबेडकर : जीवन और मिशन’ की रचना की. वह कृति भारत भर में अब मानक जीवनचरित मानी जाती है, क्योंकि उसमें नई शोधों तक को सम्मिलित किया गया है. ये दोनों पुस्तकें कालजयी है और बाली साहब के यश का ध्वज सदा फहराती रहेंगी.
इसके बाद भी बाली साहब ने अनेक पुस्तकों की रचना की है, जिनकी प्रासंगिकता सदा बनी रहेगी. मुझे इस बात का गौरव प्राप्त है कि मैं उन पुस्तकों की रचना में यथाशक्ति योगदान करता रहा हूं, जिसे बाली साहब भूमिकाओं में स्वयं अंकित करते रहे हैं.
“जब ‘डॉ. अंबेडकर ने क्या किया ?’ पुस्तक लिखी उससे पहले हमने निश्चित कर लिया था कि वह जितने पृष्ठ रोज़ के लिखेंगे, वे मेरे पास सोमा सबलोक की छोटी बहन, जो उन दिनों जालन्धर में पढ़ रही थी, के माध्यम से मेरे पास भेजते रहेंगे और मैं दूसरे दिन उन्हें वापस उसके हाथ भेज दूंगा – ठीकठाक करके. बाली साहब का कर्मचारी तृप्ता को कागज़ दे जाता और दूसरे दिन ले आता. वह पुस्तक युद्धस्तर पर लिखी गई थी. स्वयं बाली साहब ने लिखा है- ‘यह पुस्तक लिखने में मैं तो जुटा ही, मैंने अपने सहयोगियों को भी चैन से नहीं बैठने दिया. डॉ. सुरेन्द्र अज्ञात, जो हिन्दी व संस्कृत में एम.ए. हैं और पंजाब व अमेरिका के विश्वविद्यालयों से ‘डॉक्टर ऑफ फिलास्फी’ की डिग्री लिए हुए हैं, ने इस पुस्तक को तैयार करने में प्रसन्नतापूर्वक जैसा सहयोग दिया, वह नितांत प्रशंसनीय है. उन्होंने अनेक मूल्यवान सुझाव दिए, पुस्तक की सारी पाण्डुलिपि को जांचा और काफी प्रूफ तक भी दुरुस्त किए. मैं उनका इस मदद के लिए कृतज्ञ हूं. श्रीमती सोमा सबलोक ने प्रूफ जांचने के काम में मदद की. अतः उनका भी आभारी हूं.”
(स्रोत : एल. आर. बाली, डॉ. अंबेडकर ने क्या किया ? प्रथम संस्करण 1991, भूमिका, पृष्ठ 6 )
इस महत्त्वपूर्ण पुस्तक को मेरी पत्नी सोमा सबलोक ने पंजाबी में अनूदित कर दिया और वह कुछ समय पहले ही छपी है.
इस हिन्दी पुस्तक से एक दशक पहले (1980) में एक अन्य महत्त्वपूर्ण पुस्तक का बाली साहब ने प्रणयन किया था जिसकी प्रासंगिकता शाश्वत है, क्योंकि हिन्दी में ऐसी प्रामाणिक, निष्पक्ष और ज्ञानवर्धक पुस्तक, कम से कम, मेरे देखने में तो अभी तक नहीं आई है. बाली साहब ने बहुत सामग्री इकट्ठी कर रखी थी, इस पुस्तक के प्रणयन के लिए. ज्यादातर सामग्री अंग्रेज़ी में थी. उन्होंने सारी फाइल मुझे सौंप दी. मैंने उसका हिन्दी में अनुवाद तैयार किया और फाइल उन्हें लौटा दी. इसके बाद ही बाली साहब ने पुस्तक – लेखन का शुभारंभ किया था. इस पुस्तक की भूमिका में इस तथ्य को अंकित करते हुए बाली साहब ने लिखा था – ” संविधान से संबंधित सारा साहित्य अंग्रेज़ी भाषा में है, इसलिए अंग्रेज़ी के कई कठिन भागों के अनुवाद के लिए अपने सहयोगी डॉ. सुरेन्द्र अज्ञात, एम. ए., पीएच. डी. की मदद लेनी पड़ी है. उनका इस सहायता के लिए हार्दिक धन्यवादी हूं. सच तो यह
है कि उनके सहयोग के बगैर मेरे लिए यह पुस्तक लिख पाना कठिन था. श्रीमती सोमा सबलोक एम. ए., ने हिन्दी भाषा सुधारने में मदद की, इसलिए उनका भी आभारी हूं.”
(स्रोत : एल. आर. बाली, डॉ. अंबेडकर और भारतीय संविधान, प्रथम संस्करण 1980, भूमिका पृष्ठ 12 )
जिस तरह बाली साहब की पुस्तकों के रचे जाने से पूर्व हम आपस में विस्तृत चर्चा किया करते थे, उसी तरह पैंफलेट लिखने के पूर्व भी. भीम पत्रिका प्रकाशन से मेरे 20-25 पैंफलेट विभिन्न विषयों पर छपे . इनमें से अधिकतर बाली साहब के कहने पर या उनकी प्रेरणा के अधीन ही मैंने लिखे . उनका कहने का अपना विशिष्ट अंदाज़ था – वह कहते : अज्ञात साहब ‘इस’ विषय पर 32 पृष्ठ का पैंफलेट आना चाहिए; ‘इस’ विषय पर 48 पृष्ठ का पैंफलेट आना चाहिए. जो विषय उनके अधिकारक्षेत्र में आते थे या जो विषय उन्हें प्रिय थे, जिन पर उनकी मास्टरी थी, उन पर वह स्वयं लिखा करते थे. उनके लिखे पैंफलेट की विषयवस्तु से न मुझे कभी मतभेद हुआ और न मेरे लिखे पैंफलेट की विषयवस्तु से उन्हें इसीलिए भीम पत्रिका प्रकाशन से छपी मेरी किसी रचना में उन्होंने कभी कौमा तक नहीं बदला. कारण यह था कि हम दोनों सैद्धांतिक तौर पर एक जैसी मूलभूत बातों पर सहमत थे और पूरी ईमानदारी से एक मिशन के तहत काम कर रहे थे, गाड़ी के दो पहियों की तरह. अब एक पहिया रह गया है ! काम कैसे चलेगा !!
बाली साहब में एक अन्य खूबी थी, जो प्राय: आज लोगों में नदारद है. वह जब किसी का कोई काम करते थे, किसी की मदद करते थे, तो इस तरह करते थे कि कई बार उसे भी पता नहीं लगने देते थे जिसका काम वह करवा रहे होते थे. आज की दुनिया में लोग दूसरे की मदद कम करते हैं, ढिंढोरा ज्यादा पीटते हैं. बाली साहब का चरित्र इसके एकदम विपरीत था – वह मदद करके उसकी हवा भी बाहर नहीं निकलने देते थे.
M.A., Ph.D (Hindi & Sanskrit)
मैं अपने साथ घटित एक घटना यहां अंकित करना चाहता हूं. बात 2008 की है. मुझसे बोले कि नागपुर चलना है – वहां प्रशिक्षण कैंप है. मैं जालन्धर से उनके साथ गाड़ी में बैठ गया. चिचोली में नए बने प्रशिक्षण – केन्द्र में कैंप था. पहले दिन पहले सत्र में उद्घाटन का कार्यक्रम रखा हुआ था, जिसका मुझे वहां जाकर ही पता चला. बाली साहब कहने लगे कि सबका कहना था कि फीता आप काटें. मैंने कहा नहीं, आप वरिष्ठ हैं. बोले- ‘सबका कहना है कि आप ही काटें.’ मैंने सोचा शायद लोग यही चाह रहे हैं. मैंने चुपचाप फीता काट दिया. फिर कहने लगे कि उधर चलो, वहां पत्थर लगाया है, उसका अनावरण करना है. मैं समझा कि बाबा साहब और समता सैनिक दल से संबंधित कुछ विशेष होगा पत्थर पर; पर जब मैंने पर्दा हटाया तो देखकर आश्चर्यचकित रह गया क्योंकि उस पर कुछ ऐसा लिखा था – ” इस केन्द्र का उद्घाटन पंजाब के साहित्यकार डॉ. सुरेन्द्र अज्ञात ने किया है.” अब मैं समझ गया कि सारा खेल बाली साहब का था ! ऐसे अपने वरिष्ठ साथी को याद करके रोना आता है ! मुझे कागज़ पर लिखे जा रहे शब्द दिख नहीं रहे क्योंकि आंखों में आंसू भरे हैं ! मन में पंजाबी कविता की एक पंक्ति थोड़ा रूप बदल कर बार-बार उभर रही है – ‘कहां से लाएं ढूंढ कर बाली एक और !’
बाली साहब वस्तुतः अखिल भारतीय समता सैनिक दल (रजि.) के रूह-ए-रवां थे. बाबा साहब के परिनिर्वाण के पश्चात् दल अनाथ हो गया था और कहीं उसका अस्तित्व तक नहीं बचा था. 1978 में बाली साहब ने अपने अन्य सहयोगियों के साथ इसका दिल्ली में पुनरुद्धार किया था. मैं और मेरी पत्नी सोमा सबलोक भी उनके साथ गए थे. मैं तभी से दल से जुड़ा हुआ हूं. बाली साहब ने दल को अपने पैरों पर खड़ा किया. पहले जूनापानी में प्रशिक्षण कैंप लगता था. यह ज़मीन धर्मदास चन्दनखेड़े जी ने दल को दान में दी थी. उस जगह का जब सरकार ने अधिग्रहण कर लिया तब क्षतिपूर्ति के तौर पर मिले पैसे से चन्दनखेड़े जी ने चिचोली में ज़मीन खरीद कर नया और बढ़िया प्रशिक्षण केन्द्र बनवा दिया. यह सब बाली साहब की प्रेरणा का परिणाम था. अब जबकि चन्दन जी भी नहीं रहे और बाली जी भी नहीं, तो मुझे दल के भविष्य को लेकर बहुत चिन्ता है. मैं चाहता हूं कि कुछ करूं, परन्तु मेरा स्वास्थ्य मेरे रास्ते की बहुत बड़ी बाधा है.
बाली साहब ने न केवल मृतप्रायः दल को पुनर्जीवन दिया, बल्कि उन्होंने और भी नई-नई संस्थाएं खड़ी कीं. जालन्धर में जहां 1951 में बाबा साहब के चरण पड़े थे, उस स्थान पर आज एक बहुत बढ़िया अंबेडकर भवन सुशोभित हो रहा है. इसकी नींव बाली साहब ने रखी है. उन्होंने करम चन्द बाठ के साथ साइकिलों पर देहातों में घूम कर एक-एक रुपया इकट्ठा किया था. 31 अक्तूबर, 1963 तक 34,610 रुपये जमा होने पर उन्होंने 10 अप्रैल, 1964 को तीन कनाल ज़मीन खरीदी. बाद में और भी ज़मीन खरीदी – कुल 6 कनाल यह ज़मीन बाली साहब और बाठ साहब के नाम थी. इन्होंने 16 जून, 1972 को एक ट्रस्ट पंजीकृत करवा कर 6 कनाल भूमि पर बैंक में जमा राशि ट्रस्ट को सौंप दी. मूल ट्रस्ट के बाली साहब अंतिम सदस्य थे और वही संस्थापक ट्रस्टी थे, शेष 9 पहले ही बिछुड़ चुके थे. ट्रस्ट का गठन न केवल दूरदर्शिता एवं बुद्धिमत्ता से पूर्ण कदम था, बल्कि यह उनकी ईमानदारी और मिशन के प्रति अशेष समर्पण – भावना का भी द्योतक था. ट्रस्ट में उनके परिवार का कोई सदस्य नहीं था; सभी समाज के प्रतिष्ठित सज्जन थे. यद्यपि ‘अंबेडकर भवन’ ट्रस्ट की संपत्ति है और बाली साहब की व्यक्तिगत संपत्ति नहीं थी, तथापि आम लोग इसे ‘बाली का अंबेडकर भवन’ कहा करते थे ! यह भव्य अंबेडकर भवन बाली साहब की सदा याद दिलाता रहेगा.
पिछली सदी के 7वें दशक में यहां कुछ खास न था. चारदीवारी फांद कर लोग मल त्याग जाते थे; अन्दर से ईंटें उठा ले जाते थे, चारदीवारी की ईंटें भी गायब होने लगी थीं. यह बाली साहब का व्यक्तिगत दबदबा था और भवन में उनकी श्रद्धापूर्ण अभिरुचि थी कि वह लोगों से लड़ झगड़ कर इसकी रक्षा कर सके. तभी से लोग इसे ‘बाली का अंबेडकर भवन’ कहने लगे थे ! यदि ‘बाली का अंबेडकर भवन’ की छवि लोगों के मन में न बनी होती तो वे अपनी काली करतूतों से शायद बाज़ ही न आते ! बाली की स्मृति को सलाम है !
बाली साहब के दबदबे के कारण ही चिचोली के प्रशिक्षण – केन्द्र की ओर नागपुर के कुछ स्थानीय ‘समता सैनिक दल’ (?) आंख उठा कर नहीं देख सके, यद्यपि उसे देखकर उनके मुंहों में पानी भरता रहा है. एक बार हम नागपुर में चन्दनखेड़े जी के घर ठहरे हुए थे (वैसे जब भी नागपुर जाते उन्हीं का घर हमारा ठिकाना होता था. आज उनका बेटा प्रज्ञाकर चन्दनखेड़े दल का एक सक्रिय सदस्य ही नहीं बल्कि पदाधिकारी भी है ) . तब एक ‘समता सैनिक दल’ वाले लोग समझौता करने के लिए आए. परन्तु बाली जी ने उन्हें सीढ़ी चढ़ते हुओं को ही फटकार लगा दी और दूसरे दिन एम.एल.ए. होस्टल में शाम चार बजे आने को कहा. हम सब गए, बात हुई, बाली साहब समझ गए कि इनकी आंखें प्रशिक्षण – केन्द्र पर हैं. बाली जी कुछ शर्तें रखीं. यदि वे ईमानदार होते और प्रशिक्षण – केन्द्र पर उनकी आंख न होती तो उन शर्तों को मानना कुछ कठिन न था; परन्तु बोगस दल बनाए थे सिर्फ प्रशिक्षण – केन्द्र हथियाने के लिए. अत: शर्तों की बात सुनकर उनकी नानी मर गई और भाग निकले. मैंने देखा कि यदि नागपुर में भी बाली साहब का दबदबा न होता तो वहां भी लोग ईंटें उठा कर ले जाते ! ऐसा मार्गदर्शक खोकर दल अनाथ हो गया है !
बाली साहब एक विशाल वटवृक्ष थे, जिसका अनेकों को अनेक तरह का आश्रय था : कितने घोंसले होते हैं वटवृक्ष पर, कितने लोग उसकी छाया में बैठते हैं, यह बताने की ज़रूरत नहीं. इसी तरह वह ‘यारों के यार’ थे. पुरानी बात है ! मैं 1996-97 में वुल्वर हैम्पटन की ‘डॉ. अंबेडकर मैमोरियल कमेटी’ के निमंत्रण पर 14 अप्रैल के कार्यक्रम में भाग लेने इंग्लैंड गया था. वहां के प्रेमी अंबेडकरी व बौद्ध सज्जन मुझे बहुत जगहों पर घुमाने, बौद्ध संस्थान दिखाने एवं इंग्लैंड के दर्शनीय स्थल दिखाने ले जाया करते थे. कई जगहों पर लोग मेरी नाक में दम कर देते यह पूछते-पूछते कि अंबेडकर भवन का कुछ अभी तक बना क्यों नहीं, जबकि फलां व्यक्ति इतना समय पहले हम से पैसे लेकर जा चुका है ? यह बात मैंने बाली जी से कही- उनके घर पर खाना खाते समय तो वह कुछ न बोले. परन्तु बीबी जी ने उनसे कहा डॉक्टर जी को बताते क्यों नहीं कि फलां ने पैसे अपनी कोठी बनाने पर खर्च कर दिए हैं और जब कमा कर पैसे लौटाएगा तब कुछ बनेगा भवन का ? मैं बात समझ गया. वस्तुतः बाली साहब उस फलां की मजबूरी समझते थे और सारा दोष अपने सर पर लेते रहते थे ! ऐसे व्यक्ति अब दीआ लेकर ढूंढने जाओ, तब भी कहीं नहीं मिलेंगे ! धन्य हो बाली साहब !
बाली साहब जिस युग में जिए, वह राजनीतिक नैतिकता के पतन का युग कहा जा सकता है, क्योंकि सर्वत्र व्यक्तिगत हितों के लिए अंधी अवसरवादिता कार्यरत है. इसे ‘आया राम गया राम’ का युग कहना किसी भी तरह अनुचति नहीं होगा. ऐसे में अपने सिद्धांतों पर डटे रहना और हर तरह के दबाव, प्रलोभन आदि को ठोकर मार देना कोई आसान कार्य नहीं – खालाजी का घर नहीं, बल्कि टेढ़ी खीर है. ऐसा वही व्यक्ति कर सकता है, जिसका चरित्र दृढ़ हो और वह किसी उद्देश्य विशेष के प्रति पूर्णत: समर्पित हो चुका हो. बाली साहब ऐसे ही व्यक्ति थे. उन्होंने न अपनी अस्मिता से समझौता किया और न अपने सिद्धातों से वह ‘एकला चलो रे’ के अनुसार तब भी निष्कर्ष और निडर होकर चलते रहे जब अनेक राजनीतिक सहायक अपने स्वार्थों के वशीभूत होकर हरी भरी व नई चरागाहों में चरने को चले गए और उन लोगों को भुला दिया, कल तक जिनके लिए लड़ने- मरने के दमगजे मारा करते थे, मैंने इस बात के लिए बाली साहब की दबी जुबान में प्रशंसा करते उनके कई विरोधियों और साथ छोड़ चुके साथियों तक को सुना है ! यह उनमें अपराध-बोध की एक तरह से आता – स्वीकृति थी.
बाली साहब 65-66 वर्षों ( 1958 में भीम पत्रिका उर्दू में शुरू हुई थी और 1965 से हिन्दी में ) तक भीम पत्रिका (पाक्षिक) का संपादन और प्रकाशन करते रहे हैं. उनकी एक विशिष्ट नीति थी और अपनी एक विशेष अभिवृत्ति थी. वह उस पर सदा दृढ़ रहे . फलत: उन्हें सरकारी विज्ञापन कभी नहीं दिए गए. इसके बावजूद वह अपने दम पर, अपने पाठकों के सहयोग पर और अपने शुभचिंतकों के बल पर निर्भर होकर अपने निर्धारित मार्ग पर अग्रसर होते रहे.
इतना ही नहीं, वह भीम पत्रिका में कभी ऐसी हल्की फुल्की रचना को स्थान नहीं देते थे जिसका किसी सामाजिक उद्देश्य पूर्ति की दृष्टि से कोई महत्त्व न हो. इस दृष्टि से भीम पत्रिका में छप पाना खाला जी का घर न था. ऐसे में प्राय: सब कुछ बाली साहब स्वयं ही करते थे – सारा मैटर खुद ही लिखते/ तैयार करते थे. इसके लिए पर्याप्त अध्ययन करना पड़ता था. अंक तैयार करना आसान काम न था. जब अंक तैयार हो जाता, तब कहीं चैन की सांस लेते थे – ऐसा मैंने बहुत बार स्वयं महसूस किया और कई बार वह स्वयं मुझे बताया करते थे ! ऐसे संपादाचार्य आज के ज़माने में कहां मिलेंगे, जबकि आए दिन लघु पत्रिकाएं निर्वाण प्राप्त करती दिखाई दे रही हों ?
जब मैंने बाली साहब के साथ मिशन का काम शुरू किया तब मैंने भीम पत्रिका के लिए लिखना शुरू किया; परन्तु अन्य व्यस्तताओं के चलते कई बार काफी समय तक मैं लिख ही नहीं पाता था. कई बार बाली साहब किसी अंग्रेज़ी पत्र-पत्रिकाओं से कोई लेख मुझे अनुवाद करने के लिए भेज देते थे, जिसे मैं हिन्दी में अनूदित कर उन्हें भेज देता था – वह कई बार मेरे नाम से छपता, कई बार अनाम. इस तरह मेरे थोड़ा-बहुत मदद कर देने से बाली साहब बहुत राहत महसूस किया करते थे. इस बात का मुझे गर्व है कि पिछले 50 वर्षों में मैं भी तिल, फूल और जल चढ़ाता रहा हूं !
भीम पत्रिका बाली साहब का मुख्य माध्यम रहा है – उनकी आवाज़ रहा है. मुझे डर था कि बाली साहब के परिनिर्वाण के साथ ही भीम पत्रिका भी निर्वाण को प्राप्त न हो जाए. यह संतोष का विषय है कि उनके सुपुत्रों व दामादों और बेटियों ने इसे बाली साहब की आवाज़ के तौर पर यथापूर्ण जारी रखने का निर्णय ले लिया है. मुझे डॉ. राहुल कुमार से इस दिशा में बहुत आशाएं हैं.
डॉ. राहुल कुमार की बात चली है तो मुझे बाली साहब से टेलीफोन पर कुछ माह पहले हुई बातचीत याद हो आई है. उन्होंने एक दिन फोन किया कि क्या मैंने आपको ‘Dr. Ambedkar : Life & Mission’ का अंग्रेज़ी संस्करण भेजा है ? मेरे ‘न’ कहने पर बोले कि आज ही भिजवाता हूं. एक-दो दिन बाद पुस्तक मेरे पास जब पहुंची तो मैंने उन्हें फोन करके बताया कि आप द्वारा भेजी हुई पुस्तक मिल गई है. बहुत बढ़िया बन गई प्रतीत होती है. अंग्रेज़ी में इसका आना अत्यावश्यक था. तो बाली साहब कहने लगे – यह मैंने और राहुल ( डॉ. राहुल कुमार) ने मिलकर अनूदित की है. बहुत खुश थे वह. मैंने कहा- यह एक ऐतिहासिक काम हो गया !
बाली साहब सदा इस बात का गिला करते रहते थे कि अपने लोग पढ़ते नहीं. बाबा साहब को भी नहीं पढ़ते जबकि अब उनकी प्राय: सब पुस्तकें हिन्दी, पंजाबी आदि में उपलब्ध हैं. अध्ययन न करने के कारण हमारे लोग, जिनमें लेखक और नेता तक शामिल हैं, कुछ भी सार्थक और विचारोत्तेजक न सोचते हैं और न लिखते हैं. जिन्हें लेखक बनने का शौक चर्काया हुआ है, वे भी प्रायः अधकचरी बातें लिख जाते हैं, जो कई बार तो बाबा साहब के कथनों तक के विपरीत जाती प्रतीत होती हैं.
बाली साहब का अपना अध्ययन बहुत गहरा था और वह नई से नई पुस्तक को पढ़ते रहते थे और तदनुसार भीम पत्रिका में लिखते भी थे. बिना अध्ययन के लेखन खोखला होता है – बिना प्राण के शव जैसा !
अमीर और संसाधन-संपन्न व्यक्ति के सौ सहायक होते हैं, परन्तु गांव की लड़की हो, हो भी वह अनुसूचित जातीय; वह गरीब और असहाय हो कौन उसकी बात पूछता है ? यदि गांव का कोई एक-आध व्यक्ति कभी उसकी सहायता का कदम उठाए तो उस लड़की का यौन शोषण करने वाले गांव के गुण्डे उसे इस तरह के सबक सिखाते हैं कि फिर कोई उस तरह का प्रतिरोधात्मक कदम उठाने का साहस ही नहीं कर पाता. परन्तु बाली साहब एक ऐसे व्यक्ति थे जो गरीब, मज़लूम और असहाय की मदद के लिए जब निकल पड़ते थे तब उन्हें न खाना खाने की सुध रहती थी और न वह परिणाम की चिन्ता किया करते थे. ऐसे कई वाक़यात हैं, मैं यहां सिर्फ एक का ज़िक्र करूंगा.
करतारपुर थाना के अंतर्गत पड़ने वाले चकराला गांव की एक गरीब लड़की थी, जो एक अनुसूचित जाति में जन्मी थी. गांव में उसके साथ गांव के लुच्चों द्वारा यौन दुराचार किया गया और उसे बार- बार अपनी हवस का शिकार बनाया गया. इन लुच्चों की मण्डली के विरुद्ध शिकायत करने पर शिकायतकर्ता को ही पुलिस ने अत्याचार का शिकार बनाया. और कोई चारा न देखकर एक कामरेड उस लड़की को बाली साहब के नकोदर रोड स्थित कार्यालय में ले आया और उन्हें सारी व्यथा – कथा सुनाई. बाली साहब का दोपहर का खाना घर से आता था और उसे खाने ही वाले थे कि उसे एक ओर रखकर उठ खड़े हुए और कामरेड तथा उस लड़की को लेकर पुलिस कप्तान (एस.पी.) के कार्यालय पहुंच गए. कप्तान कोई पल्टा था. उससे बातचीत कुछ इस प्रकार हुई :
“बाली : पल्टा साहब ! इस लड़की, भोली पर बहुत अत्याचार ढाए जा रहे हैं, इसके साथ बलात्कार भी हुआ है.
पल्टा : मैं इस लड़की की कहानी जानता हूं. यह वेश्या है.
बाली : यदि आपकी बात को सही मान लिया जाए, तो क्या कोई व्यक्ति वेश्या को उसके कोठे ( ठिकाने) से जबरदस्ती उतार कर सड़क में ले जाकर उससे बलात्कार कर सकता है ?
पल्टा : (गुस्से में) द्रौपती भी तो पांच जनों ने रखी थी !
बाली : (इस पर मेरा खून खौल उठा, मैंने कह दिया ) तो फिर तुम्हारी बेटी को भी तो पांच रख सकते हैं.
पल्टा : बकवास बंद कर.
इतना सुनते ही मैंने (बाली साहब) अपने दाएं पैर की पिशौरी चप्पल पल्टा को दे मारी, जो उसे लग कर नीचे गिर गई. ‘ (स्रोत : अंबेडकरी होने का अर्थ, पृष्ठ 132 )
ऐसा बाली साहब ही कर सकते थे. यह घटना 1968 की है, परन्तु अभी तक लोगों की स्मृति में ताज़ा है और शायद यह सदा ऐसी ही बनी रहेगी !
बाली साहब मेरे लिए अग्रज नहीं, पितृ – स्थानीय (Father figure) थे और घनिष्ठ सहयोगी. वह हमारे वरिष्ठ पारिवारिक सदस्य थे. उन्होंने 2000 में मेरे ज्येष्ठ पुत्र मानव अज्ञात की शादी अपनी चचेरी बहन की बेटी से करवाई थी. अतः दोनों परिवारों की ओर से वही मुख्य थे.
इस तरह और भी अनेक अविस्मरणीय स्मृतियां हैं, जिनके उल्लेख का शायद यह उपयुक्त अवसर नहीं है. बाली साहब के परिनिर्वाण से अंबेडकरी आंदोलन और बौद्ध परंपरा की अपूरणीय क्षति हुई है. उनके परिवार के साथ-साथ हमारे परिवार को भी गहरा सदमा लगा है. उन द्वारा चलाए संगठनों के भविष्य पर भी मुझे प्रश्नचिन्ह लगते दिख रहे हैं, विशेष : ‘समता सैनिक दल’ पर उनकी स्मृतियां हमारे मनों में सदा संरक्षित रहेंगी. हमारा कर्त्तव्य है कि हम उनके मिशन को अग्रसर करते रहें – उनके विचारों को फैलाते रहें, उनके साहित्य को प्रचारित करते रहें. उन द्वारा बनाए व चलाए जाते संगठनों को जीवित रखें और उस कारवां को आगे लेकर चलते रहें, जिसका वह नेतृत्व कर रहे थे !
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